
कुछ रिश्तों को खोया कुछ रिश्तों को पा गया।
ज़िन्दगी की दौड़ में न जाने मैं कहां आ गया।
कभी-कभी इस चकाचौंध से सहम सा जाता हूं।
जब हज़ारों की भीड़ में खुद को तन्हा पाता हूं।
हमारे लिए तो वो बचपन का दिन ही प्यारा था।
टूटा- फूटा ही सही पर वो घर तो हमारा था।
जब देखता हूं मुड़कर आंखे भर जाती हैं।
घर के आंगन में बैठी मां नज़र आती है।
जी करता है मां कहकर गले से लिपट जाऊ।
बिना उनके दिल नहीं लगता है उनकों ये बताऊ।
आंखे खुलते मां का चेहरा धूंघला नज़र आता है।
फिर वहीं अकेले पन का डर मुझकों सताता है।
हकिकत से होते ही रुबरू आंसूओं को बहा गया।
ज़िन्दगी की दौड़ में न जाने मैं कहां आ गया।
---दिलीप---
दिलीप जी आपने बहुत ही अच्छा लिखा है
ReplyDeletesuresh@ ji sukriya..
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